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सम्मान नागरिक संहिता
देश के विधि आयोग ने ‘समान नागरिक संहिता’ के सम्बन्ध में एक महीने के भीतर-भीतर जन सुझाव मांगे हैं। जाहिर है कि ये सुझाव भारतीय समाज के सभी वर्गों व समुदायों के विचार जानने के लिए मांगे गये हैं। भारत में जिस तरह की सांस्कृतिक विविधता विभिन्न आंचलिक परिवेश से लेकर जातीय व सामुदायिक परिवेश तक विभिन्न धार्मिक विश्वासों के दायरे में फैली हुई है उसे देखते हुए किसी भी एक धर्म के अनुयायियों तक को एक जैसे रीति-रिवाजों में बांध कर देखना गलत होगा। हर समुदाय की विवाह पद्धति अलग-अलग देखने में आती है। इसके बावजूद स्वतन्त्रता मिलने के बाद पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमन्त्री रहते भारत में हिन्दू समुदाय के लोगों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू की गई।
वास्तव में उस समय यह बहुत बड़ा क्रान्तिकारी कदम था और संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर का सपना था क्योंकि बाबा साहेब ने स्वतन्त्र भारत के 1952 में हुए प्रथम चुनावों से पहले ही ‘हिन्दू कोड बिल’ के नाम से एक विधेयक पं. नेहरू की सरकार के कानून मन्त्री रहते उस समय की संसद में रख दिया था जिसे पर्याप्त समर्थन नहीं मिल पाया था जिससे दुखी होकर बाबा साहेब ने सरकार से ही इस्तीफा दे दिया था।
इसके बाद 1952 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी की तरफ से पं. नेहरू ने ‘हिन्दू कोड बिल’ के विभिन्न उपबन्धों को आम जनता की अदालत में मुद्दा बनाया और इन्हें चुनावी विमर्श बनाकर पेश किया। इन चुनावों में कांग्रेस की जीत हुई और इसके बाद हिन्दू कोड बिल को टुकड़ों में संसद में पारित कराया गया। समान नागरिक संहिता पूरे हिन्दू समाज पर लागू की गई औऱ बहुपत्नी परंपरा को नाजायज व गैर कानूनी बना दिया गया और ऐसा करने वाले के लिए सजा का प्रावधान कानून में कर दिया गया। इसे एक प्रगतिशील कदम माना गया मगर यह प्रावधान केवल हिन्दू समाज के लिए ही किया गया और अन्य अल्पसंख्यक समाज के लोगों के लिए उनके घरेलू धार्मिक कानूनों को ही वैध माना गया। खास कर मुस्लिम समाज के लोगों को एक समान नागरिक संहिता के दायरे से बाहर रखे जाने को उस समय भी हिन्दू महासभा व जनसंघ आदि राजनैतिक पार्टियों ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति बताया। तभी से इन पार्टियों द्वारा सभी भारतीयों के लिए एक समान नागरिक संहिता की मांग उठ रही है जिसे नये-नये नाम देने से भी राजनैतिक दल संकोच नहीं करते।
दरअसल स्वतन्त्र भारत में सभी धर्मों के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता न बनाये जाने की जड़ें कांग्रेस द्वारा भारत की आजादी के लिए चलाये गये स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ी हैं। 1931 में कराची शहर में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हुआ था जिसकी अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की थी। उस समय मुसलमानों के लिए पृथक स्वतन्त्र राज्य की मांग उठ रही थी। मुस्लिम लीग कांग्रेस पार्टी को ‘हिन्दू पार्टी’ बता रही थी। लीग के इस प्रचार का मुकाबला करना भी कांग्रेस के लिए चुनौती बन रहा था। अंग्रेजों ने देश की आजादी के आन्दोलन से मुसलमानों को बाहर रखने की गरज से पहले से ही 1909 से अलग निर्वाचन मंडल दे रखा था। 1931 में कराची में सरदार पटेल की अध्यक्ष्ता में कांग्रेस ने भारत के लोगों को धार्मिक पहचान से ऊपर सभी नागरिकों को मौलिक या मानवीय अधिकार देने का प्रस्ताव पारित किया।
लोकतान्त्रिक पद्धति के अपनाये जाने पर ये नागरिक अधिकार स्वतन्त्र भारत के लोगों का ‘गहना’ बनने जा रहे थे। परन्तु मुस्लिम राज्य या पाकिस्तान के खतरे से बचने के लिए इसमें मुसलमान नागरिकों के लिए प्रावधान किया गया कि उनके घरेलू मामलों में उनके धार्मिक कानून ही लागू रहेंगे जबकि फौजदारी मामलों में कानून अन्य नागरिकों के समान ही होंगे। हालांकि भारत का दो-तिहाई से ज्यादा संविधान तभी लिखा गया जब भारत से पाकिस्तान के अलग होने का फैसला लगभग हो ही गया था परन्तु पं. नेहरू ने स्वतन्त्र भारत में रह रहे मुसलमान नागरिकों में विश्वास कायम रखने के लिए सभी धर्मों के लिए एक समान नागरिक संहिता को लागू करना उचित नहीं समझा।
हालांकि कुछ विद्वानों का मत है कि यदि नेहरू जी चाहते तो ऐसा कर सकते थे। मगर वह भारत की आन्तरिक समरसता के साथ छेड़छाड़ करना नहीं चाहते थे और नवनिर्मित पाकिस्तान की सरकार को चुनौती देना चाहते थे कि भारत में रहने वाले मुस्लिम नागरिक उसके मुस्लिम नागरिकों से कहीं ज्यादा सुरक्षित और सुखी हैं। परन्तु वर्तमान भारत में यदि हम अपनी आदिवासी व जनजातीय परंपराओं की बात करें तो इन नागरिकों को हिन्दू या मुसलमान की (श्रेणी ) में रख कर उनके लिए नागरिक नियम बनाना उनकी संस्कृति को विलुप्त करने के प्रयासों के रूप में देखा जायेगा। संविधान के अनुच्छेद 371 सहित अनुसूची 6 व 7 में उनकी परंपराओं व रीति-रिवाजों को संरक्षित रखने के पक्के प्रावधान हैं।
अतः एक समान नागरिक संहिता का विचार बहुत सी उलझने रखने वाला भी है। मोटे तौर पर यदि इसे सभी धर्मों के मानने वाले लोगों पर एक समान रूप से लागू करने का निर्णय किया जाता है तो भारतीय संविधान में प्रदत्त मजहब या धर्म की स्वतन्त्रता का कानून भी आड़े आता है। इस वजह से कुछ विद्वानों का मत है कि यदि एक समान नागरिक संहिता स्वतन्त्र भारत के शुरू में ही एक झटके में लागू कर दी जाती तो बेहतर होता मगर इसके कई खतरे भी थे। विधि आयोग द्वारा जन सुझाव मांगे जाने का मतलब यह भी है कि आयोग स्वयं में आश्वस्त होना चाहता है कि भारत की विभिन्न मान्यताओं व विश्वासों व रीति-रिवाजों को एक कानून में बांधने का असर भारत के लोगों पर क्या हो सकता है। 2018 की भी इस बारे में एक मन्त्रणा रिपोर्ट रखी हुई है।