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जिस गणित से एकनाथ शिंदे को शिवसेना सौंपी थी, उस हिसाब से देखें तो NCP अजित पवार को ही मिलेगी ; चुनाव आयोग कैसे तय करेगा

अब अजित पवार ने नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी यानी NCP और उसके चुनाव चिन्ह पर अपना दावा जताते हुए याचिका दाखिल की है।

शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार के बीच आर-पार की जंग जारी है। दोनों ने आज ही के दिन विधायकों की बैठक बुलाई। अजित की बैठक में NCP के 35 विधायक और शरद की बैठक में महज 7 विधायकों के पहुंचने का दावा किया जा रहा है।

अब अजित पवार ने नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी यानी NCP और उसके चुनाव चिन्ह पर अपना दावा जताते हुए याचिका दाखिल की है। चुनाव आयोग ने कुछ महीने पहले जिस गणित से एकनाथ शिंदे को शिवसेना सौंपी थी, उस हिसाब से देखें तो NCP अजित पवार को ही मिलेगी।

आखिर क्या है चुनाव आयोग का वो गणित, एक्सपर्ट  से जानेंगे…

सवाल-1 : अजित पवार को NCP और उसके सिंबल पर दावा ठोकने के लिए किसके पास जाना होगा?

जवाब : राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे की दो स्थितियां हैं…।

पहली- जब विधानसभा सत्र चल रहा हो। इस स्थिति में निर्णय लेने का अधिकार विधानसभा स्पीकर के पास होता है। ऐसे में दल-बदल कानून भी लागू होता है।

दूसरी- जब विधानसभा सत्र नहीं चल रहा हो। जैसे फिलहाल महाराष्ट्र के हालात हैं। ऐसे वक्त में पार्टी में कोई फूट होती है, तो चुनाव आयोग फैसला करता है कि असली पार्टी किसकी है। चुनाव आयोग को ये अधिकार द इलेक्शन सिंबल्स (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 के पैराग्राफ 15 से मिलता है।

सवाल-2 : चुनाव आयोग कैसे तय करेगा की पार्टी सिंबल शरद पवार को मिले या अजित पवार को?

जवाब : चुनाव आयोग में मामला पहुंचने पर वह पार्टी में वर्टिकल बंटवारे की जांच करता है। इसमें विधायिका और संगठन दोनों देखे जाते हैं।

इसके अलावा चुनाव आयोग बंटवारे से पहले पार्टी की टॉप कमेटियों और डिसीजन मेकिंग बॉडी की लिस्ट निकालता है। इससे ये जानने की कोशिश करता है कि इसमें से कितने मेंबर्स या पदाधिकारी किस गुट में हैं। इसके अलावा किस गुट में कितने सांसद और विधायक हैं।

ज्यादातर मामलों में आयोग ने पार्टी के पदाधिकारियों और चुने हुए प्रतिनिधियों के समर्थन के आधार पर सिंबल देने का फैसला दिया है, लेकिन अगर किसी वजह से यह ऑर्गेनाइजेशन के अंदर समर्थन को सही तरीके से जस्टिफाई नहीं कर पाता, तो आयोग पूरी तरह से पार्टी के सांसदों और विधायकों के बहुमत के आधार पर फैसला करता है।

सवाल-3 : कुछ महीने पहले शिवसेना पर उद्धव और शिंदे दावा कर रहे थे। आयोग ने आखिरकार एकनाथ शिंदे को शिवसेना सौंपी? उसके पीछे क्या गणित था?

जवाब : इस साल फरवरी में शिंदे शिवसेना के मामले में चुनाव आयोग ने विधायिका के आधार पर फैसला दिया था। अपने 78 पेज के फैसले में आयोग ने कहा था कि विधान मंडल के सदन से लेकर संगठन तक में बहुमत शिंदे गुट के ही पास दिखा है। ऐसे में पार्टी का नाम ‘शिवसेना’ और पार्टी का प्रतीक धनुष और तीर एकनाथ शिंदे गुट के पास रहेगा।

आयोग के सामने दोनों पक्षों ने अपने-अपने दावे और उनकी पुष्टि के लिए दस्तावेज प्रस्तुत किए थे। एकनाथ शिंदे गुट के पास यूनाइटेड शिवसेना के टिकट पर जीत कर आए कुल 55 विधायकों में से 40 विधायक थे।

पार्टी में कुल 47,82,440 वोटों में से 76% यानी 36,57,327 वोटों के दस्तावेज शिंदे गुट ने अपने पक्ष में पेश कर दिए। इसके साथ शिवसेना के 12 सांसद भी थे।

उद्धव ठाकरे गुट ने शिवसेना पर पारिवारिक विरासत के साथ ही राजनीतिक विरासत का दावा करते हुए 15 विधायकों और कुल 47,82,440 वोट में से सिर्फ 11,25,113 वोटों का ही दस्तावेजी सबूत पेश कर पाए थे।

यानी कुल 23.5% वोट ही ठाकरे गुट के पास थे। ठाकरे गुट के पास शिवसेना के सिर्फ 15 विधायकों का समर्थन था। यानी कम विधायक होने के चलते उद्धव गुट को पार्टी सिंबल और नाम से हाथ धोना पड़ा।

सवाल-4 : इस आधार पर देखें तो अजित पवार का पार्टी सिंबल पर दावा कितना मजबूत है?

जवाब : NCP में अभी कुल 53 विधायक हैं। अजित पवार गुट के छगन भुजबल ने 40 विधायकों के साथ होने का दावा किया है। यानी 75% विधायक अजित गुट के साथ हैं। बाकी सारे विधायक शरद गुट के साथ भी मान लें तो उनकी संख्या 25% से कम है।

अजित पवार ने बुधवार को बांद्रा के भुजबल नॉलेज सिटी के MET सेंटर में NCP नेताओं की बैठक बुलाई थी। इस बैठक में 35 से ज्यादा विधायकों के पहुंचने का दावा किया गया है। वहीं शरद पवार ने वाईबी चह्वाण सेंटर यानी NCP दफ्तर में बैठक की। शरद पवार की बैठक में 7 विधायकों के पहुंचने का दावा किया गया है।

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अजित गुट ने 29 विधायकों के नाम भी दिए: अजित पवार, छगन भुजबल, हसन मुश्रीफ, नरहरि झिरवाल, दिलीप मोहिते, अनिल पाटिल, माणिकराव कोकाटे, दिलीप वाल्से पाटिल, अदिति तटकरे, राजेश पाटिल, धनंजय मुंडे, धर्मराव अत्राम, अन्ना बंसोड़, नीलेश लंके, इंद्रनील नाइक, सुनील शेलके, दत्तात्रय भरणे, संजय बंसोड़, संग्राम जगताप, दिलीप होना, सुनील टिंगरे, सुनील शेलके, बालासाहेब अजाबे, दीपक चव्हाण, यशवंत माने, नितिन पवार, शेखर निकम, संजय शिंदे, राजू।

विधान परिषद सदस्य: अमोल मिटकारी, रामराजे निंबालकर, अनिकेत तटकरे, विक्रम काले

अजित गुट के छगन भुजबल ने कहा, ‘हमारे पास 40 विधायक हैं। कई विधायक ट्रैफिक में फंसे हैं। कुछ विदेश में हैं, लेकिन उनके एफिडेविट हमारे पास हैं। लोग कह रहे हैं कि दल बदल कानून लागू होगा। कार्रवाई होगी, सब कुछ विचार करने के बाद ही ये फैसला लिया गया है।’

फिलहाल इन दावों से साफ है कि पार्टी सिंबल अजित को मिल सकता है।

सवाल-5 : चुनाव आयोग में मामला जाने के बाद पार्टी सिंबल पर कितने दिनों में फैसला आ सकता है?

जवाब : चुनाव आयोग को ऐसे मामलों में पेश फैक्ट्स, दस्तावेज और हालात की स्टडी करने में समय लग सकता है। चुनाव आयोग से फैसले की कोई समय-सीमा नहीं है।

हालांकि, चुनाव होने की स्थिति में आयोग पार्टी के सिंबल को फ्रीज कर सकता है। साथ ही दोनों गुटों को अलग-अलग नामों और अस्थायी सिंबल पर चुनाव लड़ने की सलाह दे सकता है।

सवाल-6 : भविष्य में अजित पवार और शरद पवार गुट के बीच सुलह हो जाती है, तो पार्टी सिंबल की अपील का क्या होगा?

जवाब : यदि दोनों गुटों में सुलह हो जाती है तो वे फिर से चुनाव आयोग से संपर्क कर सकते हैं। साथ ही एक पार्टी के रूप में पहचान की मांग कर सकते हैं।

आयोग के पास गुटों के मर्जर को एक पार्टी के रूप में मान्यता देने का भी अधिकार है। यानी पार्टी फिर से अपने सिंबल और नाम का इस्तेमाल कर सकेगी।

सवाल-7 : 1968 से पहले ऐसे मामलों में क्या होता था?

जवाब : 1968 से पहले चुनाव आयोग कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स 1961 के तहत नोटिफिकेशन और एग्जीक्यूटिव ऑर्डर जारी करता था। 1968 से पहले सबसे हाई-प्रोफाइल मामला 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी CPI में टूट का था।

CPI से अलग हुए एक गुट ने दिसंबर 1964 में चुनाव आयोग पहुंचा और उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी CPI (M) के रूप में मान्यता देने की मांग की। इस दौरान इस गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की सूची प्रदान की जिन्होंने उनका समर्थन किया।

चुनाव आयोग ने इस दौरान अपनी जांच में पाया कि इस गुट का समर्थन करने वाले सांसदों और विधायकों के वोट 3 राज्यों में 4% से अधिक थे। ऐसे में चुनाव आयोग ने इस गुट को CPI (M) के रूप में मान्यता दे दी।

सवाल-8 : 1968 के आदेश के बाद पहले मामले में क्या हुआ था?

जवाब : 1968 में नया नियम आने के बाद पहला मामला कांग्रेस में फूट का था। 1969 में कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई थी। 3 मई 1969 को राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन की मौत होती है। उपराष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति बनते हैं। उस समय तक उपराष्ट्रपति को ही राष्ट्रपति बनाने का चलन था, लेकिन कांग्रेस सिंडिकेट ने इस विचार को खारिज कर दिया। इसके बाद इंदिरा गांधी और दिग्गज नेताओं के ताकतवर गुट कांग्रेस सिंडिकेट के बीच तनातनी नजर आने लगी।

सिंडिकेट नेता के कामराज, एस निजलिंगप्पा और अतुल्य घोष नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। रेड्डी सिंडिकेट के करीबी थे। उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उप राष्ट्रपति रहे वीवी गिरी को निर्दलीय के रूप में मैदान में उतरने के लिए प्रोत्साहित किया। साथ ही पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा की ओर से जारी व्हिप की अवहेलना करते हुए पार्टी नेताओं से अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने को कहा।

गिरी के राष्ट्रपति चुनाव जीतते ही इंदिरा को पार्टी से बाहर कर दिया जाता है। ऐसे में पार्टी निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली ओल्ड कांग्रेस (O) और इंदिरा के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस (R) में बंट जाती है। चुनाव आयोग ने ओल्ड कांग्रेस को दो बैलों की जोड़ी का सिंबल बरकरार रखा। वहीं इंदिरा गुट को गाय और बछड़ा सिंबल दिया गया।

Khabar Abtak

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