प्रकृति का प्रचंड प्रकोप झेल रहे हिमालयी राज्य,
जलवायु जटिलता की पहेली कब सुलझेगी, कैसे सुलझेगी

इशिता शर्मा का लेख
लेखिका क्लाइमेट व सोशल मामलों की विशेष जानकार है।
हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में हाल के बादल फटने की घटनाओं ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि हिमालयी राज्य अत्यधिक मौसमीय घटनाओं के प्रति कितने संवेदनशील हो गए हैं। केवल वर्ष 2025 में ही, दर्जनों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, सैकड़ों लापता हैं और राजमार्गों, पुलों तथा धार्मिक मार्गों जैसी महत्वपूर्ण अवसंरचनाएं बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई हैं।
जम्मू-कश्मीर में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र किश्तवाड़ जिले का चशोटी रहा, जहां 14 अगस्त को भीषण बादल फटने की घटना ने मचैल माता यात्रा मार्ग पर सामुदायिक रसोइयों, सुरक्षा शिविरों और वाहनों को बहा दिया। कम-से-कम 65 लोगों की मौत हो गई, जबकि 200 से अधिक लोग अब भी लापता हैं। बचे हुए लोगों ने का कहना है कि हालात को बेहद गंभीर बताते हुए कहा कि पूरी बस्तियां ही बह गईं।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले का खूबसूरत धराली गांव 5 अगस्त को अचानक आई बाढ़ से तहस-नहस हो गया। शुरुआत में इसे बादल फटना माना गया, लेकिन अब विशेषज्ञ जांच कर रहे हैं कि क्या यह ग्लेशियल झील फटने की वजह से हुआ। इस आपदा में 5 लोगों की मौत हुई और 50 से अधिक लोग लापता हैं।
हिमाचल प्रदेश भी गंभीर रूप से प्रभावित हुआ। 14 अगस्त को कुल्लू-शिमला क्षेत्र में बादल फटने से पुल टूट गए और तीन गांव कट गए। दो दिन बाद, मंडी, कुल्लू और किन्नौर जिलों में भारी बारिश ने 74 अचानक बाढ़, 34 बादल फटने और 63 बड़े भूस्खलन को जन्म दिया। इसमें 36 लोगों की मौत हुई और 37 लापता हैं।
संकट और गहरा गया जब जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले के जंगलोट क्षेत्र में बादल फटने से सात लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हुए। इस घटना ने मकानों को नुकसान पहुंचाया और सड़क व रेल इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त संपर्क कर दिया।
ये घटनाएं हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी संतुलन को लेकर गंभीर चेतावनी हैं।
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राज्य- मौतें -लापता
•उत्तराखंड – धराली 5- 50+
•जम्मू-कश्मीर – चशोटी 65 200+
•हिमाचल–मंडी/कुल्लू/शिमला/किन्नौर 36- 37
•जम्मू-कश्मीर – कठुआ 7 10
बादल फटने का असर: स्थानीयकृत क्षेत्रों में अचानक और तीव्र वर्षा कुछ ही मिनटों में भारी तबाही ला देती है। खड़ी ढलानें, कमजोर भूगर्भीय संरचना और संवेदनशील क्षेत्रों में बढ़ती मानव बस्तियां इस खतरे को कई गुना बढ़ा देती हैं। हालांकि ऐसी प्राकृतिक घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता, लेकिन इनके प्रभाव को निश्चित रूप से कम किया जा सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि उन्नत राडार, मौसम उपग्रह और जमीनी स्तर पर चेतावनी तंत्र विकसित कर शीघ्र चेतावनी प्रणाली को मजबूत करना बेहद आवश्यक है।
नदी किनारे, नालों और अस्थिर ढलानों पर निर्माण पर सख्त रोक लगाई जानी चाहिए। हिमालयी क्षेत्रों की अवसंरचना को जलवायु-लचीले डिज़ाइनों के साथ तैयार करना होगा ताकि वह अचानक आई बाढ़ और भूस्खलनों को झेल सके।
समान रूप से महत्वपूर्ण है समुदाय की तैयारी। ग्रामीणों, यात्रियों और पर्यटकों को निकासी अभ्यास, प्राथमिक उपचार और आपातकालीन प्रतिक्रिया का प्रशिक्षण देना अनगिनत जिंदगियां बचा सकता है।
प्राकृतिक आपदा कम करने को विशेषज्ञों के सुझाव
• ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना।
• नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना।
• जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन बढ़ाना।
• अनियोजित विकास को रोकना और टिकाऊ पर्यटन को प्रोत्साहित करना।
• वनों का संरक्षण, खनन पर नियंत्रण और जल संसाधनों का संरक्षण।
• आपदा की तैयारी, चेतावनी प्रणाली और जोखिम प्रबंधन को मजबूत करना।
रिपोर्ट का महत्व:कुछ समय पूर्व प्रकाशित रिपोर्ट “हिमालय की विरासत पर प्रकृति का कहर” में कहा गया कि भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ताजिकिस्तान तक फैला हिमालय वैश्विक ऊष्मीकरण से गंभीर खतरे में है। रिपोर्ट ने यह भी खुलासा किया कि 1970 से अब तक हिमालय के लगभग 15% ग्लेशियर पिघल चुके हैं।
भूवैज्ञानिकों के अनुसार रमणीय प्राकृतिक स्थलों वाले क्षेत्र सबसे अधिक भूस्खलन-प्रवण हैं। कभी ताजे जल का समृद्ध स्रोत रहा हिमालय अब गंभीर पारिस्थितिक संकट से गुजर रहा है। लगभग 50% प्राकृतिक झरने सूख चुके हैं। यहां लगभग 8,800 हिमनदीय झीलें हैं, जिनमें से 200 से अधिक को खतरनाक श्रेणी में रखा गया है |
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वाडिया संस्थान का अनुमान व अनुसंधान: वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के निदेशक पी.एस. नेगी का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक चुनौतियां तो मौजूद हैं, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप भी उतना ही जिम्मेदार है। उन्होंने हिमालय में पलायन को एक बड़ी सामाजिक समस्या बताया।
नेगी ने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए संतुलित प्रयासों की आवश्यकता पर जोर दिया और चेतावनी दी कि हिमालय क्षेत्र हिमस्खलन, ग्लेशियर झील फटने से अचानक आई बाढ़, बड़े पैमाने पर भूस्खलन और बादल फटने जैसी त्रासदियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।
हिमालय, जिसे पृथ्वी की प्राकृतिक सुंदरता का हृदय कहा जाता है, को अछूता रहना चाहिए लेकिन लालच में अंधे होकर मनुष्य लगातार इन पर्वतों का दोहन कर रहा है और भयावह आपदाओं को न्योता दे रहा है।
नेगी का मानना है कि अनियंत्रित और अवैज्ञानिक विकास हिमालय के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण है। इस ओर गंभीरता से ध्यान न दिया गया तो हम जानते बूझते हुए विनाश की ओर आगे बढ़ जाएंगे। बचाव का कोई रास्ता नहीं बचेगा।
*लेखिका क्लाइमेट व सोशल मामलों की विशेष जानकार है।*