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पीड़िता की गरिमा को पत्थर से मत तोलिए ‘मी लॉर्ड’ 

रेप की कोशिश मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी दे रही टीस

डॉ तेजी ईशा लेखिका समालोचक एवं एसजीटी यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर का लेख

करीब बीस साल पहले की बात है। एक गांव में पंचायत बैठी। छायादार पीपल के पेड़ के नीचे, भरी दोपहरी में। पंचायत के सामने एक मामला आया। एक नाबालिग लड़की के पिता ने शिकायत की कि गांव के एक लड़के ने उसकी बेटी को खेत में उस समय पकड़ने की कोशिश की, जब वो बकरी को पानी पिलाने गई थी। पंचों ने बात सुनी। फिर लड़के के पिता ने बोलना शुरू किया। वो अपने बेटे की करतूत पर शर्मिंदा तो थे लेकिन उसके किये को कोई बड़ा अपराध मानने के लिए तैयार नहीं थे। लड़की पंचों के सामने मौजूद नहीं थी लेकिन लड़का वहां मौजूद था। लड़की-लड़के के बाप को सुनने के बाद एक पंच ने कहा: लड़के को समझाओ। ये अच्छी बात नहीं। गांव की लड़की उसकी बहन हुई। कोई अपनी बहन के साथ ऐसा कुछ करता है क्या? इसके बाद पंचायत उठ गई। न कोई सजा, न जुर्माना, न मारपीट। यह था एकतरफा संवेदनहीन पंच फैसला। लड़की के घर वालों सहित पूरे गांव ने फैसला मान लिया।

पंचायत के उस फैसले की याद अब एकदम से आ गई। सारी हिदायतें एकदम से याद आ गईं और ये सब हुआ इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस मनोहर नारायण मिश्र के आदेश की वजह से। 11 साल की एक बच्ची के केस को सुनते हुए, जज साहब ने अपने फैसले में लिखा-बच्ची के निजी अंग को पकड़ना, पायजामे का नाड़ा तोड़ना बलात्कार की कोशिश नहीं है। “बलात्कार की कोशिश” को स्थापित करने के लिए और सबूत लगेंगे। उन्होंने अपने आदेश में कहा कि अभियोजन पक्ष को ये साबित करना होगा कि मामला तैयारी से आगे बढ़ चुका था।

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सोचिए, हाईकोर्ट का ये फैसला 2025 में आया है। निर्भय कांड के बाद 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के एक फैसले को पटलते हुए कहा था, “किसी बच्चे के यौन अंगों को छूना या ‘यौन इरादे’ से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पॉक्सो एक्ट की धारा 7 की तहत ‘यौन हमला’ माना जाएगा।

कानून केवल शारीरिक क्षति पर आधारित नहीं होता, बल्कि वह यह भी देखता है कि पीड़िता की गरिमा और आत्मसम्मान को कितना नुकसान पहुंचा है। ऐसी टिप्पणी पीड़िता के दर्द को नकारने जैसी है। इस टिप्पणी की आड़ में अपराधियों के हौसले बुलंद हो सकते हैं। समाज के सबसे बुरे तत्वों के लिए इस तरह का सूक्ष्म अंतर ढूंढ़ना उन्हें बचाने की तिकड़म जैसा लगता है। ऐसे तो महिलाओं के लिए न्याय के दरवाजे और कठिन होते जाएंगे।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद, उस लड़की की मनःस्थिति को भी समझने की कोशिश की जानी चाहिए। क्या वह न्याय व्यवस्था में भरोसा रख पाएगी? क्या देश की बाकी लड़कियां, महिलाएं न्याय व्यवस्था में भरोसा कायम रख सकेंगी? ये बड़ा और जरूरी सवाल है जिसका जवाब इस देश की सबसे सर्वोच्च अदालत को खोजना चाहिए। हालांकि हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिल चुकी है।

 

 

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