पटना में देश के प्रमुख विपक्षी दलों ने एक मंच पर आकर जिस तरह की एकता का परिचय दिया है उसे भारत के लोकतन्त्र की स्वाभाविक प्रक्रिया के तौर पर लिया जाना चाहिए | सब राजनैतिक दल उस भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध इकट्ठा हो रहे हैं जो पिछले दो लोकसभा चुनावों से अपने दम पर ही लोकसभा में पूर्ण बहुमत लाने में सफल हो रही है। इस पार्टी के नेता प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी हैं जिनके बूते पर यह पार्टी अपना बहुमत लाने में कामयाब रही है परन्तु विपक्षी दलों का मानना है कि उनके आपस में ही बिखरे रहने की वजह से भाजपा भारतीय चुनाव प्रणाली के नियमों के अनुसार लोकसभा में अपने प्रत्याशी विजयी कराने में सफल हो जाती है और संयुक्त रूप से अधिकतम चुनाव क्षेत्रों में भाजपा से अधिक वोट पाकर भी उसके अलग-अलग प्रत्याशी आपस में ही लड़ने की वजह से हार जाते हैं। अतः 2024 में विपक्षी दल आपस में एक होकर भाजपा के प्रत्याशियों के खिलाफ अपना भी एक साझा उम्मीदवार मैदान में उतार कर यह लड़ाई जीतना चाहते हैं परन्तु इसे एक सीधा अंकगणित कहा जा सकता है जिसका जमीनी राजनीतिक चौसर पर केवल सतही महत्व ही होता है।
किसी भी चुनाव में जमीन पर जो राजनैतिक चौसर बिछती है उसमें सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष द्वारा जनता के बीच उठाये गये विमर्श का ही महत्व होता है। मतदाता जिस पक्ष के विमर्श को अपने अनुकूल समझते हैं अन्ततः विजय भी उसकी ही होती है। पटना बैठक में जुड़े 16 राजनैतिक दलों ने प्राथमिक स्तर पर अपना एजेंडा या विमर्श साफ कर दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि बैठक में विभिन्न राजनैतिक दलों के एक से एक बढ़ कर अनुभवी व बुजुर्ग नेताओं की मौजूदगी में यह विमर्श कांग्रेस के सांसद और घर से बेघर हुए जोशीले नेता श्री राहुल गांधी ने उछालते हुए साफ किया कि लोकसभा चुनावों में विचारधारा की लड़ाई केन्द्र में रहेगी। राहुल गांधी इस लड़ाई को अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समय से ही ‘नफरत बनाम मोहब्बत’ का नाम दे रहे हैं। मगर कांग्रेस पार्टी के इस घोषित विमर्श के बावजूद विभिन्न क्षेत्रीय विपक्षी दलों को यह तय करना होगा कि वे अपने-अपने प्रभावशाली क्षेत्रों में आपस में किस प्रकार सामजस्य स्थापित करेंगे जिससे भाजपा के एक प्रत्याशी के विरुद्ध उनका भी एक ही प्रत्याशी खड़ा हो।
बेशक भारत राजनैतिक विविधताओं से भी भरा देश है जिसकी वजह से विभिन्न राज्यों में हम अलग-अलग क्षेत्रीय राजनैतिक दल भी देखते हैं। मगर जब हम राष्ट्रीय स्तर पर लोकसभा चुनावों की कल्पना करते हैं तो इन्हीं विभिन्न राज्यों या क्षेत्रों के मतदाताओं की अपेक्षाएं बदल जाती हैं और वे केन्द्र में स्पष्ट राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले किसी राजनैतिक दल की सरकार की कल्पना ही करते हैं परन्तु हमने यह भी देखा है कि 1996 के बाद से देश में केन्द्र में साझा सरकारों का भी लम्बा दौर चला जिसके तहत देश के लगभग प्रत्येक क्षेत्रीय दल को कांग्रेस या भाजपा की अगुवाई में गठित गठबन्धन में शामिल होकर सत्ता का स्वाद चखने का अवसर भी मिला। इससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि केन्द्र में जो भी सरकार 1996 के बाद से गठित हो रही है वह केवल दो नजरियों पर ही टिकी रही है। इसमें एक नजरिया कांग्रेस का है और दूसरा भाजपा का है। अतः राहुल गांधी ने अपनी पार्टी का एजेंडा विपक्षी दलों की पहली बैठक में ही उछाल कर साफ कर दिया है कि भाजपा अब इसके विरुद्ध अपना एजेंडा सतह पर लाकर देशवासियों को बताये कि उसका चुनावी विमर्श किन सिद्धान्तों पर आधारित होगा। इसका मतलब यह भी निकलता है कि विभिन्न विरोधी क्षेत्रीय दलों को इस ख्वाब से बाहर आना होगा कि उनके प्रभाव वाले राज्यों में उनकी पार्टी का एजेंडा आगे रहेगा।
पिछले 2019 के चुनावों में जब देश भर में भाजपा श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर अपने बूते पर ही 303 सीट जीतने में कामयाब हुई थी तो उसे 37 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को राहुल गांधी की अध्यक्षता में 20 प्रतिशत वोट मिले थे। अतः बहुत ही स्पष्ट है कि विभिन्न विपक्षी दलों को राष्ट्रीय चुनावों में कांग्रेस के छाते के नीचे आकर ही उसके उठाये गये विमर्श को आगे बढ़ाते हुए भाजपा से मुकाबला करना होगा। यह मुकाबला कई मायनों में बहुत विचित्र भी होगा क्योंकि भाजपा इसे नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी में तब्दील करना चाहेगी। यह कार्य विभिन्न विपक्षी क्षेत्रीय दलों का होगा कि वे इसे अपने-अपने राज्यों में विमर्श केन्द्रित बना कर पेश करें। विपक्षी एकता के परीक्षण की सबसे बड़ी कसौटी भी यही मुद्दा बनने जा रहा है। मगर भारत का लोकतन्त्र इतना कमजोर भी नहीं है कि वह राजनैतिक दलों के उलझावे में आ जाये। इस देश के गरीब व कम पढ़े-लिखे समझे जाने वाले मतदाताओं में राजनैतिक चातुर्य इस तरह भरा हुआ है कि वे अपने फैसले से बड़े से बड़े राजनैतिक धुरंधर को भी हैरान कर डालते हैं। दलों की एकजुटता का फैसला भी ये मतदाता जमीन पर ही करेंगे। उनके ‘हम सब एक हैं’ कहने मात्र से एकता नहीं होती है।