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सबसे बड़ा सवाल… फिर क्यों चाहिए बाहरी मुसलमानों को भारत की नागरिकता ?

 

केंद्र की मोदी सरकार एक अच्छी मंशा से नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लेकर आई है। किंतु देश विरोधी शक्तियां इसे लेकर जनमानस के बीच जिस तरह का नैरेटिव सेट करने के प्रयास में लगी हैं, वह बहुत ही खतरनाक है। 2019 की तरह ही इस विषय पर फिर से देश में अराजकता पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत के नागरिक मुसलमानों को भड़काने की कोशिशें शुरू हो गई हैं, यह कहकर कि उनके अधिकारों का हनन है। मुसलमानों में डर का माहौल यहां तक बनाया जा रहा है कि ”यह देश के 17 करोड़ मुसलमानों को संदेश है कि वे अब कागज निकालें” ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिममीन (एआईएमआईएम) अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता कह रहे है, “आप क्रोनोलॉजी समझिए, पहले चुनाव का मौसम आएगा फिर सीएए के नियम आएंगे।…सीएए विभाजनकारी है और गोडसे की सोच पर आधारित है, जो मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहता है।… राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के साथ सीएए का उद्देश्य केवल मुसलमानों को टारगेट करना है, इसका कोई अन्य उद्देश्य नहीं है ।”

देखा जाए तो सीएए मुद्दे पर सभी प्रधानमंत्री मोदी विरोधियों का फोकस इस बात पर है कि कैसे हम यह सिद्ध कर पाने में सफल हों कि यह कानून देश के लगभग 15 करोड़ मुसलमानों को राज्यविहीन बना देने के लिए लाया गया है। इसी सोच के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव, कांग्रेस सांसद शशि थरूर समेत इंडी के अधिकांश घटक दल आज आगे बढ़ते हुए दिख रहे हैं।

वास्तव में जो भी राजनीतिक पार्टियां और नेता आज ‘सीएए’ का विरोध कर रहे हैं, उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि भारत विभाजन का सबसे बड़ा कारण कौन सा रहा ? किसे चाहिए था धर्म (मजहब) के आधार पर अलग देश? गैर मुस्लिमों के खिलाफ एक ही दिन अविभाजित भारत में ‘डारेक्ट एक्शन’ किसने शुरू किया था? और जब धर्म के आधार पर दो देशों के बीच मुस्लिम-गैर मुस्लिम की जनसंख्यात्मक अदला-बदली होनी चाहिए थी, आखिर वे कौन लोग (नेता-संगठन) थे, जिन्होंने ऐसा होने नहीं दिया।

यदि यह कार्य उसी वक्त हो जाता तो 1947 से लेकर अब तक स्वतंत्र भारत में जितने भी सांप्रदायिक दंगे हुए और उनमें जिन मासूमों, सामान्य जनों को अपनी जानें गंवानी पड़ी, वह नहीं जातीं! और न ही भारत में हिन्दू-मुस्लिम जैसी कोई समस्या दिखाई देती । इतना ही नहीं देश में पिछले 75 वर्षों के दौरान एक विशेष धर्म को माननेवाले जितने स्लीपर सेल एवं आतंकी पकड़े गए, अनेक बम ब्लास्ट हुए, वह भी नहीं होते। केंद्र और राज्य सरकारों का धन और ऊर्जा इस प्रकार के तमाम मामलों को सुलझाने में जो खर्च होती है, कहना होगा कि वह भी नहीं लगती। तब दोषी कौन हुआ? क्या जो निर्वासित हो रहे थे, वे दोषी हैं या वे जिनके साथ अमानवीय अत्याचार सिर्फ इसलिए किए गए क्योंकि उनका धर्म अलग था? इस सब के लिए उन्हें ही दोषी माना जाए?

ऐसे में साफ समझ आता है कि दोषी 1947 की तत्कालीन भारत-पाकिस्तान की सरकारें रही हैं। यदि आज पूर्व सरकार की गलती को भारत सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुधारने का प्रयास किया है तो खुले मन से विचार करें; इस का विरोध होना चाहिए या सर्वत्र समर्थन ? जनसंख्या के आंकड़े देखिए; ह्यूमन राइट सर्व रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान में हिंदुओं की जनसंख्या 1931 में 15 प्रतिशत थी, वह विभाजन के बाद सिर्फ 1.3 फीसदी रह गई । यह आंकड़ा 1961 में 1.4 प्रतिशत, 1981 में 1.6 और अभी की स्थिति में अधिकतम बढ़कर 1.8 प्रतिशत तक ही पहुंच सका है।

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यूनाइटेड स्टेट्स कमिशन ऑन इंटरनेशनल रिलिजियस फ्रीडम का सार्वजनिक तौर पर डेटा मौजूद है जो यह बता रहा है कि पाकिस्तान में हिन्दू-सिख एवं ईसाईयों की स्थिति बहुत दयनीय है। पाकिस्तान में हर साल एक हजार से ज्यादा हिंदू, सिख और क्रिश्चियन लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया जाता है। यदि इस अधिकारिक आंकड़े से अलग सामान्य धर्म परिवर्तन के मामले देखें तो अकेले अल्पसंख्यक लड़कियों के कन्वर्जन की यह संख्या एक हजार से कई गुना अधिक बढ़ जाती है।

वस्तुत: यही हाल बांग्लादेश का है। अविभाजित भारत में 1901 में हुई जनगणना में बांग्लादेश में कुल 33 फीसदी हिंदू आबादी रहती थी, लेकिन 1971 में दुनिया के नक्शे पर नए देश के रूप में आए इस बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी सतत गिरावट की ओर है। यहां अल्पसंख्यक हिंदुओं पर सुनियोजित हमले हो रहे हैं। पिछले एक दशक में वहां हिंदुओं पर लगभग पांच हजार हमले हुए हैं, जिनमें सैकड़ों जानें गईं और हजारों हिंदू घायल हुए हैं। यहां वर्ष 2021 तक महज 6.5 प्रतिशत हिंदू ही रह गए हैं। जिनकी कि 2024 में संख्या घटकर ओर कम लगभग 6.2 प्रतिशत ही रह गई है। आप स्वयं विचार करें 33 प्रतिशत का छह प्रतिशत पर सिमट जाने के मायने क्या हैं !

विश्व जानता है कि पाकिस्तान से अलग होने की बांग्लादेशी नींव भारत के सहयोग के बाद ही साकार हो सकी थी और इसके लिए पंथनिरपेक्षता की बुनियाद चुनी गई, जहां सभी धर्मों के लोग अपना पर्व-त्योहार मनाने, धार्मिक स्वतंत्रता और समानता का अधिकार रखते हैं, लेकिन आप पिछले 53 वर्षों की गैर मुस्लिम लोगों की यात्रा देखिए; आपको समझ आ जाएगा कि पाकिस्तान की तरह ही यहां हिंदू समेत अन्य गैर मुस्लिम समाजों को सुरक्षा, समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकर जैसे शब्दों से उपेक्षित कर रखा गया है । अफगानिस्तान में तालिबान शासन में क्या हुआ, वह भी दुनिया से छिपा नहीं रहा है। इससे पूर्व की सरकार में भी यहां लगातार गैर मुसलमानों की हत्याएं होती रहीं। यहां तो हिन्दू और सिख अब दो-चार ही बचे हैं।

कुल निष्कर्ष यह है कि आज का पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान हो । इन तीनों ही देशों में गैर मुसलमानों की स्थिति दयनीय है। दूसरी ओर यह भारतीय संविधान की ताकत है जो यहां सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव है । जब धर्म का आधार लेकर मुस्लिम लीग ने ‘डारेक्ट एक्शन’ चलाया था, तभी भारत और पाकिस्तान ये दो रेखाएं खिंची । उन्हें मुसलमानों का देश चाहिए था, वह उन्हें मिल गया । हिन्दुस्थान सभी के लिए है। यहां रह रहे मुसलमान आज पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान की तुलना में बहुत बेहतर स्थिति में हैं । दूसरी ओर इन तीनों देशों में गैर मुसलमान कितनी बदतर स्थिति में जी रहे हैं, यह आज दुनिया जानती है। इसलिए भारत सरकार यह कानून लेकर आई है। निश्चित ही यह मोदी सरकार का एक सही निर्णय है। जिनके पूर्वजों ने ‘डारेक्ट एक्शन’ से अखण्ड भारत को तोड़ने का कार्य किया है, उन्हें वहीं रहना चाहिए जहां वे अभी हैं । उन्हें भारत की नागरिकता से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। साथ ही जो आज भारत में मुसलमानों के साथ न्याय नहीं हो रहा, जैसा राग अपाल रहे हैं, उन्हें भी इस तरह से झूठ बोलने से दूर रहना चाहिए । क्योंकि अब तक का केंद्र सरकार की योजना का डेटा यही बता रहा है कि कई योजनाओं तक में अपनी जनसंख्या में अनुपात से मुसलमानों को अधिक ही लाभ दिया जा रहा है।

Khabar Abtak

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